माइक्रोफाइनेंस योजनाओं की शुरुआत गरीब और वंचित वर्ग को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के उद्देश्य से की गई थी। इनका मकसद था कि छोटे-छोटे ऋण देकर ग्रामीण परिवारों, विशेषकर महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया जाए। लेकिन व्यवहार में यह व्यवस्था गरीबों के लिए सहारा बनने के बजाय शोषण का साधन बन चुकी है।
आज हालात यह हैं कि माइक्रोफाइनेंस संस्थान ऊँची ब्याज दरों पर कर्ज़ देकर गरीब परिवारों को कर्ज़ के दलदल में धकेल रहे हैं। जब परिवार समय पर किस्त चुकाने में असमर्थ होते हैं, तो वसूली एजेंट अमानवीय तरीके अपनाते हैं — घर-घर जाकर दबाव बनाना, सार्वजनिक रूप से अपमानित करना और महिलाओं को मानसिक उत्पीड़न झेलने पर मजबूर करना। ऐसे मामलों ने कई परिवारों को टूटने तक की स्थिति में पहुँचा दिया है।
कहा जाता है कि यह व्यवस्था गरीबों को गरीबी से बाहर निकालने के लिए है, पर सच्चाई यह है कि गरीब और भी गरीब बनते जा रहे हैं। ऋण का बोझ इतना अधिक बढ़ जाता है कि उन्हें अपनी मेहनत की कमाई, यहाँ तक कि जमीन-जायदाद और गहने तक बेचने पड़ते हैं। कई परिवार तो दो-तीन अलग-अलग संस्थानों से कर्ज़ लेने को मजबूर होते हैं और फिर इस चक्रव्यूह से निकल पाना लगभग असंभव हो जाता है।