माइक्रोफाइनेंस को कभी गरीबी मिटाने और वंचित तबके को सशक्त बनाने का एक बड़ा औज़ार बताया गया था। लेकिन हक़ीक़त इससे बिल्कुल अलग और कहीं ज़्यादा भयावह है। सूदखोरी की पुरानी परंपरा को नए चेहरे और आधुनिक ढाँचे में प्रस्तुत कर दिया गया है, जहाँ गरीब महिलाएँ और किसान ऊँचे ब्याज दरों और जबरन वसूली के शिकंजे में जकड़े हुए हैं। ‘सूक्ष्म वित्त’ के नाम पर चल रहा यह कारोबार, दरअसल, शोषण और लूट का एक संगठित तंत्र बन चुका है।
माइक्रोफाइनेंस संस्थाएँ (MFIs) छोटे-छोटे क़र्ज़ देकर लोगों को ऋण के जाल में फँसा देती हैं, जहाँ चुकौती असंभव हो जाती है। कर्ज़ की किश्तें समय पर न भर पाने पर अपमान, धमकी और कभी-कभी आत्महत्या तक की नौबत आ जाती है। यह व्यवस्था गरीब की मजबूरी को अपनी पूँजी बढ़ाने का साधन बना चुकी है।
यह किताब/लेख/अभियान माइक्रोफाइनेंस की इस असली तस्वीर को सामने लाने का प्रयास है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे ‘विकास’ और ‘आर्थिक आज़ादी’ के नाम पर गरीबों को एक नए तरह के लूटतंत्र का शिकार बनाया जा रहा है। साथ ही, यह जनता से आह्वान करता है कि वे इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ़ अपनी आवाज़ उठाएँ और क़र्ज़ से मुक्ति की लड़ाई को मज़बूत करें।