जब किसी नागरिक को अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़े, तो यह लोकतंत्र के लिए एक गंभीर चेतावनी है। आज बिहार के युवा, अभ्यर्थी, शिक्षक और सामान्य नागरिक अपनी जायज़ माँगों को लेकर जब भी आवाज़ उठाते हैं — उन्हें न्याय के बदले लाठी मिलती है, और उनके अधिकारों के सवाल पर सरकार की ओर से बस चुप्पी मिलती है।
नौकरी की माँग करने पर सड़कों पर लाठियाँ बरसाई जाती हैं। डोमिसाइल नीति जैसे जनहित के मुद्दों पर सिर्फ़ आश्वासन दिए जाते हैं, पर क्रियान्वयन शून्य है। आरक्षण, पारदर्शिता, ट्रांसफर-पोस्टिंग, महिला अधिकार — हर मोर्चे पर केवल असंवेदनशीलता दिखाई जा रही है।
इस चुप्पी और दमन का विरोध ज़रूरी है। लोकतंत्र में लाठी नहीं, संवाद होना चाहिए। अधिकारों की मांग करने वालों को जवाब, सम्मान और न्याय मिलना चाहिए — हिंसा नहीं। अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने का। जब न्याय की जगह लाठी और अधिकार की जगह चुप्पी मिले, तो संघर्ष ही विकल्प बन जाता है।