अमेरिका द्वारा अडानी समूह पर वारंट जारी करना केवल एक कानूनी मसला नहीं है, बल्कि यह भारत के आर्थिक तंत्र, सरकार की नीतियों, और उसके चहेते उद्योगपतियों के साथ संबंधों पर गंभीर सवाल खड़ा करता है। अडानी समूह, जो मोदी सरकार का सबसे करीबी माने जाने वाला कारोबारी समूह है, उस पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गंभीर आरोप लगना भारत की साख को नुकसान पहुंचा सकता है।
मोदी सरकार की खामोशी क्यों?
जब विदेशी एजेंसियां अडानी समूह की जांच में आगे बढ़ रही हैं, तब भारत की सरकारी एजेंसियां क्या कर रही हैं? क्या यह सरकार सिर्फ अडानी जैसे उद्योगपतियों के हितों की रखवाली के लिए काम कर रही है? क्या देश की जनता के संसाधन और टैक्सपेयर्स का पैसा चंद बड़े उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए दांव पर लगा दिया गया है?
गंभीर सवाल जो सरकार को जवाब देने चाहिए:
1. अडानी का संरक्षण क्यों?
जब अडानी समूह पर भ्रष्टाचार, कर चोरी और काले धन के लेन-देन जैसे आरोप लग रहे हैं, तो मोदी सरकार अपनी जांच एजेंसियों से कार्रवाई क्यों नहीं करवा रही?
2. राष्ट्रीय संपत्तियों का निजीकरण किसके लिए?
एयरपोर्ट, बंदरगाह और ऊर्जा सेक्टर से जुड़ी महत्वपूर्ण परियोजनाएं अडानी को ही क्यों दी जा रही हैं? क्या यह प्रक्रिया पारदर्शी थी?
3. अंतरराष्ट्रीय बदनामी का जिम्मेदार कौन?
अडानी पर लगे आरोप अब भारत की छवि को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। क्या यह सरकार की “सबका साथ, सबका विकास” नीति का हिस्सा है या “कुछ का साथ, उन्हीं का विकास”?
जनता को जागरूक होना होगा:
मोदी सरकार को समझना चाहिए कि देश की जनता अब सवाल पूछने लगी है। यह मामला सिर्फ अडानी का नहीं, बल्कि भारत की अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र की पारदर्शिता का है। अगर सरकार जनता के सवालों का जवाब नहीं देती, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि उसकी प्राथमिकता देश के लोग नहीं, बल्कि चंद उद्योगपति हैं।
अब चुप्पी नहीं, जवाब चाहिए!