चइता — यानी चैत्र का महीना। एक ऐसा समय जब गांव की गलियों में बसंती हवा बहती है, खेतों में सरसों की महक घुली होती है, और मन में उठती है लोकगीतों की सजीव तान। यही वो समय होता है जब भोजपुरी अंचल की मिट्टी में रचे-बसे चइता गीत, अपने पूरे भावलोक के साथ गूंजने लगते हैं — कहीं विरह की वेदना, कहीं प्रेम की पुकार, तो कहीं भक्ति की मिठास।
चइता के बीच में गूंजती लोक भावनाओं की स्वर लहरियाँ" केवल सुरों का संयोग नहीं, बल्कि यह उस ग्रामीण जीवन की धड़कन है जो प्रकृति, प्रेम और परंपरा से गहराई से जुड़ा है। ये गीत खेतों की मेड़ों से उठकर मंदिरों की सीढ़ियों तक पहुंचते हैं, और फिर वहां से दिलों में बस जाते हैं। इन लोक सुरों में कहीं एक युवती अपने पिया की बाट जोहती है, तो कहीं एक मां अपने बेटे के परदेस जाने की चिंता में डूबी होती है।
चइता गीत केवल गायन नहीं, बल्कि अनुभव हैं — जिनमें पुरखों की विरासत है, नदियों का कल-कल है, और मिट्टी की सौंधी खुशबू है। इन गीतों को सुनना मानो अपनी जड़ों से संवाद करना है। यह हमारे समाज की मौलिक चेतना को अभिव्यक्त करने का माध्यम है, जो समय के साथ आधुनिकता की भीड़ में भी अपनी पहचान बनाए हुए है।