पिछले 17 वर्षों से बिहार के शैक्षणिक तंत्र में एक गहरी खामोशी छाई हुई है — सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में लाइब्रेरियन का पद खाली पड़ा है। यह खामोशी सिर्फ किताबों की अलमारियों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सरकार की उदासीनता और शिक्षा के प्रति लापरवाही की प्रतीक बन चुकी है। न कोई वादा, न कोई बहाना — बस अज्ञान की सत्ता को बनाए रखने की जिद।
बिहार की शिक्षा व्यवस्था आज एक गहरे संकट से जूझ रही है। सरकारी विद्यालयों और महाविद्यालयों में ज्ञान के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत — पुस्तकालय — वर्षों से उपेक्षा के शिकार हैं। यह सिर्फ ईंट-पत्थर की इमारतें नहीं होतीं, ये विचारों की प्रयोगशालाएं होती हैं, जहां सोच विकसित होती है, सवाल जन्म लेते हैं और समाधान ढूंढे जाते हैं।